Friday, July 5, 2019

ओमान पाकिस्तानी बलूचों को नौकरी क्यों नहीं दे रहा

"मैंने अपनी ज़िन्दगी के पाँच साल इस इंतज़ार में गुज़ारे हैं कि कहीं से मेरी नौकरी को लेकर कोई जवाब आएगा. लेकिन अब तक किसी ने कुछ भी नहीं बताया है और ऐसा महसूस कराया जा रहा है जैसे मैं कुछ ग़लत करने जा रहा हूं."
25 साल के गहराम बलोच का ये बयान ओमानी फ़ौज में भर्ती होने के लिए इंटरव्यू को लेकर है. वो 330 से ज़्यादा के क़रीब बलूच नौजवानों में से एक हैं जो नौकरी के लिए इंटरव्यू के पाँच साल बाद भी जवाब के इंतज़ार में हैं.
एक पाकिस्तानी शहरी का एक दूसरे देश की फ़ौज में भर्ती का ख़्वाहिशमंद होना शायद आपको अजीब लगे लेकिन पाकिस्तान के सूबे बलूचिस्तान के तटीय क्षेत्र ग्वादर के लोगों के लिए खाड़ी देश ओमान में नौकरी की ख़्वाहिश कोई अजीब चीज़ नहीं है.
बलूचिस्तान से ओमान जाने वालों में बड़ी संख्या छात्रों और मेहनतकशों की रही है. हालांकि पिछले कुछ सालों में ये प्रक्रिया अपने अंत तक पहुंचती नज़र आ रही है.
ओमानी अधिकारियों की तरफ़ से बलूच नौजवानों की अपनी फ़ौज में आख़िरी बाक़ायदा भर्ती तो 1999 में की गई थी जबकि उसके बाद 2014 में जिन लोगों के इंटरव्यू लिए गए उन्हें आज तक जवाब नहीं दिया गया.
इस बारे में वर्ल्ड बैंक की अप्रैल 2019 में प्रकाशित होने वाली रिपोर्ट के मुताबिक़, खाड़ी देशों में दक्षिणी एशिया से मज़दूरों के जाने की प्रक्रिया बहुत हद तक कम हो गई है.
इन देशों में ओमान का नाम भी लिया गया है जहां रिपोर्ट के मुताबिक़ मेहनतकशों की भर्तियों की प्रक्रिया में कमी की एक वजह वहां पर होने वाली 'ओमानाइज़ेशन' है, जिसका मतलब किसी भी तरह की भर्तियां करते वक़्त अपने शहरियों को तरजीह देना हैबलूचिस्तान और ओमान सल्तनत के संबंध ख़ासे पुराने हैं. एक अनुमान के मुताबिक़, मकरानी बलूच ओमान की आबादी का 25 फ़ीसद हिस्सा हैं और इन्हें वहां अलबलूशी पुकारा जाता है.
1908 में प्रकाशित होने वाली किताब 'गजेटियर ऑफ़ परशियन गल्फ़, ओमान एंड सेन्ट्रल अरबिया' अरब और फ़ारस की खाड़ी में काम करने वाले ब्रिटिश दूतावास के कर्मचारियों के लिए इलाक़े के बारे में जानकारी के लिए ख़ासा महत्वपूर्ण समझा जाता था.
इसके लेखक जॉन लारिमर के मुताबिक़ 18वीं सदी में ख़ान ऑफ़ क़लात नूरी नसीर ख़ान के दौर में ओमान के एक शहज़ादे 'बाहोट' बनकर यानी पनाह की तलाश में इनके पास आए थे.
शहज़ादे ने अपनी सल्तनत वापस हासिल करने के लिए बलूचिस्तान से मदद की गुज़ारिश की थी लेकिन नूरी नसीर ख़ान इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे.
बीबीसी से बात करते हुए शोधकर्ता और प्रोफ़ेसर हफ़ीज़ जमाली का कहना था, "ख़ान ऑफ़ क़लात ने उस वक़्त ग्वादर के बंदरगाह जो तब महत्वहीन था उनको तोहफ़े के तौर पर दे दिया ताकि इससे होने वाली आमदनी से वो अपना गुज़ारा कर सकें. फिर ग्वादर बाक़ायदा तौर पर ओमानी सल्तनत का हिस्सा बन गया."
हालांकि बलोच राष्ट्रवादी इस बयान को नहीं मानते और उनका मानना है कि ओमानी शहज़ादे को ग्वादर अस्थायी तौर पर उनकी हिफ़ाज़त के लिए दिया गया था और उन लोगों को ग्वादर पर पूरा हक़ हासिल नहीं था.
बलूचिस्तान के तटीय इलाक़े ग्वादर को देखा जाए तो वहां आज भी ओमानी दौर के क़िले सदियों पुराने शाही बाज़ार में नज़र आते हैं. ये ग्वादर के एक दौर की तस्वीर पेश करते हैं जब सरहदें सिर्फ़ एक लकीर समझी जाती थीं और सफ़र दुश्वार होने के बावजूद लोग काम की वजह से विभिन्न देशों में आते-जाते रहते थे.
गहराम बलोच के ख़ानदान से संबंध रखने वाले कई लोग भी ऐसे ही ज़माने में वहां चले गए थे जब ओमानी फ़ौज में काम करने के कारण ओमान की नागरिकता मिलना ख़ासा आसान था.
प्रोफ़ेसर हफ़ीज़ जमाली ने जॉन लारिमर की लिखी हुई बात दोहराते हुए कहा कि 'जब ओमानी सल्तनत का फैलाव हुआ यानी जब ओमान ने अफ़्रीका और भारत के समुद्र तक अपना क़ब्ज़ा जमाया तो मकरान के बलोच बतौर सिपाही ओमान के फैलाव में एक अहम किरदार निभाते हुए उभरे.'