वोडाफ़ोन-आइडिया और एयरटेल के घाटा दिखाने के साथ-साथ हाल ही में लाइसेंस फ़ीस से जुड़े विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आया है.
मामला है एजीआर यानी अडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू का. यह 15 साल पुराना केस है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट का अभी फ़ैसला आया है.
जब
मोबाइल सर्विस शुरू हुई थी, तो ऑपरेटरों से सरकार फ़िक्स्ड लाइसेंस फ़ीस
लेती थी. यानी आपके 100 ग्राहक हों या लाखों, आपको इसके एवज में निश्चित
रकम देनी है.
लेकिनअगस्त 1999 में नई पॉलिसी आई जिसके मुताबिक़
ऑपरेटरों को सरकार के साथ रेवेन्यू शेयर करना होगा. यानी आपको 100 रुपए की कमाई में से भी निश्चित प्रतिशत सरकार को देना होगा और हज़ारों-करोड़ की
कमाई में से भी.
इससे सरकार की कमाई भी बढ़ गई क्योंकि टेलिकॉम कंपनियां भी बढ़ गईं और
उनके ग्राहक बढ़ने से सरकार को भी फ़ायदा हुआ. लेकिन एजीआर का झगड़ा ये है कि इसमें किस-किस चीज़ को शामिल किया जाए.
अब यह टेलिकॉम कंपनियों की
क़िस्मत ख़राब है कि इसी दौर में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला उनके ख़िलाफ़
आया है और उन्हें भारी-भरकम लंबित रक़म सरकार को चुकानी होगी.
अब
इसका समाधान यह हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को सरकार ही नया
क़ानून लाकर बदलकर कंपनियों को राहत दे या फिर डिपार्टमेंट ऑफ़ टेलिकॉम कहे कि हम आपके यह रक़म एकमुश्त नहीं लेंगे, आप धीरे-धीरे एक निश्चित अवधि में
दे दीजिए.
प्रश्न यह उठता है कि जब कोई कंपनी डेटा को महंगा करेगी तो क्या उसके ग्राहक अन्य कंपनियों के पास नहीं चले जाएंगे?
मोबाइल
नंबर पोर्टेबिलिटी (एमएनपी) अधिक सफल नहीं हुआ है. फिर बात आती है
विकल्पों की. बीएसएनएल को भी मिला दिया जाए तो भारत में चार ही टेलिकॉम
ऑपरेटर हैं. यानी ग्राहकों के पास बहुत विकल्प नहीं हैं.
अगर आज की
तुलना 2008-10 से करें तो तब देश में 13 टेलिकॉम ऑपरेटर थे. अब स्थिति
उल्टी हो गई है. पहले प्राइसिंग पावर यानी मूल्य तय करने की ताक़त कंपनियों
के पास नहीं थी.
उस समय ग्राहकों के पास विकल्प बहुत थे. इसीलिए
प्रतियोगिता के कारण कंपनियां मूल्य बढ़ाने से पहले सोचती थीं. लेकिन अब कम
ऑपरेटर रह जाने के कारण प्राइसिंग पावर कंपनियों के पास आ गई है.
Саратовской области ищут
Friday, November 22, 2019
Tuesday, September 17, 2019
सेरेना विलियम्स की ताक़त का क्या राज है?
एकल ख़िताब में अपना 24वां ग्रैंड
स्लैम जीतने के मुकाबले यूएस ओपेन 2019 में सेरेना विलियम्स का सफ़र कई
मायनों में बहुत यादगार रहा है.
ऑस्ट्रेलियाई दिग्गज महिला खिलाड़ी मार्गरेट कोर्ट स्मिथ के 24वें ग्रैंड स्लैम ख़िताब के साथ आज सेरेना बराबरी पर खड़ी हैं. टेनिस के शीर्ष पर अपनी ताक़त को बरक़रार रखना दिलचस्प हैः ये वही टूर्नामेंट है जिसमें इस अमरीकी खिलाड़ी ने 20 साल पहले अपना पहला ग्रैंड स्लैम एकल खिताब जीता था.
साल 1968 में इस खेल के व्यवसायीकरण के बाद से अब तक कोई भी पुरुष या महिला खिलाड़ी ऐसा नहीं है जिसने ओपन में लगातार ऐसा प्रदर्शन किया हो.
37 साल और 11 महीने की उम्र में सेरेना विलियम्स ने टेनिस कैलेंडर के चार मुख्य टूर्नामेंटों (ऑस्ट्रेलियाई ओपन, फ्रेंच ओपन, विम्बलडन और यूएस ओपन) में से एक को जीता. और इस तरह वो ऑस्ट्रेलियाई दिग्गज केन रोज़वाल के क़रीब पहुंच गई हैं जिन्होंने 37 साल दो महीने की उम्र में 1972 में ऑस्ट्रेलियाई ओपन जीता था.
1999 से 2010 तक उन्होंने 13 ग्रैंड स्लैम जीते. अगले 10 ग्रैंड स्लैम 2012 से 2017 के बीच उनके खाते में आए जब वो अपनी ज़िन्दगी के तीसरे दशक में दाखिल हो चुकी थीं.
साल 2017 के अंत में जारी डब्लूटीए रैंकिंग में सेरेना फ़ेहरिस्त में शामिल 100 खिलाड़ियों में से उन तीन खिलाड़ियों में से एक थीं जो 30 साल के ऊपर के थे.
सेरेना के ख़िलाफ़ कोर्ट में उतरने वाले खिलाड़ियों की औसत उम्र 25 साल है.
गुरुवार को यूक्रेन की खिलाड़ी एलीना स्वेतोलिना को हराने के बाद सेरेना ने कहा, "मैं इन अंकों के बारे में नहीं सोचती."
"मैं यहां जितना अच्छा हो सके वैसा प्रदर्शन करने आई हूं. 20 साल से यहां हूं और अब भी खेल रही हूं."
पर उन्होंने ये दूसरी पारी की सफलता कैसे पाई?
इसके पीछे दो मुख्य नाम हैं, पैट्रिक मोराटोग्लो और मेकी शिल्स्टन.
पहला नाम वो फ़्रांसिसी कोच हैं जिन्हें सेरेना ने 2012 में फ्रेंच ओपन में पहली बार शुरुआती राउंड में ही हार के बाद चुना था.
इस कोच ने इस अमरीकी खिलाड़ी के खेल को संवारने में मदद की.
शिल्स्टन निजी ट्रेनर हैं जिन्होंने पहले भी सेरेना के साथ काम किया था. पर 2011 में जब सेरेना अपनी खराब सेहत से जूझ रही थीं तब शिल्स्टन ने उन्हें नयी दिशा दी. ये वही साल था जब सेरेना अपने फेफड़ों में एक खतरनाक क्लॉट और पैर में लगी चोट से जूझ रही थीं.
मां बनना
इस बीच सेरेना मां भी बनीं. इसका ये मतलब बिलकुल नहीं है कि सेरेना अविजित ही रहीं. जनवरी 2017 में ऑस्ट्रेलियाई खिताब जीतने के बाद सेरेना ने लगातार अगले तीन ग्रैंड स्लैम के फाइनल हारे.
नाओमी ओसाका से 2018 में यूएस ओपन में हार के बाद अंपायर कार्लोस रामोस पर गुस्सा निकालने और आगाह किये जाने ने उस मैच को एक अलग महत्त्व दे दिया.
हालांकि, सेरेना 2019 में विम्बलडन फ़ाइनल में पहुंचीं लेकिन उन्हें इस साल एक टूर्नामेंट जीतना अभी भी बाकी है.
आज वो विश्व रैंकिंग में आठवें स्थान पर हैं जो किसी प्लेयर के लिए काफी सम्मानजनक स्थान है, पर सेरेना के लिहाज़ से ये कम ही है.
इस अमरीकी खिलाड़ी ने जब दो साल पहले ऑस्ट्रेलियाई ओपन जीता था तब वो दो माह की गर्भवती थीं जिसके बाद वो आठ माह तक अपनी बेटी अलेक्सिस ओलम्पिया ओहनियन जूनियर के जन्म के कारण खेल से दूर रहीं.
2018 में सेरेना ने वापसी की और फ्रेंच ओपन में पहला राउंड खेला. उस वक़्त सेरेना विश्व रैंकिंग में 451वें स्थान पर थीं.
ये यात्रा किसी कविता से कम नहीं है, जिसमें वो न्यूयॉर्क में अपने 24वें खिताब तक पहुंचीं. साथ ही उन्होंने अपने पहले खिताब के ठीक 20 साल पूरे किए.
ये फ्लशिंग मेडोस कॉम्प्लेक्स ही 2018 के उस लम्हे का साक्षी रहा जब अपने प्रशंसकों के सामने उनकी इमेज किसी खलनायिका सी हो गई थी.
क्या ये ही वो जगह बनेगी जहाँ अपने 25वें खिताब की जीत के लिए सेरेना झुककर सबका अभिवादन करेंगी!
कुछ कहा नहीं जा सकता, पर यकीनन अगले कुछ दिन उनके ज़ेहन में ये सब ज़रूर चलेगा.
Friday, August 23, 2019
الرئيس الأمريكي دونالد ترامب يطالب بخفض معدلات الفائدة وسط مخاوف من ركود اقتصادي محتمل
طالب الرئيس الأمريكي دونالد ترامب البنك المركزي الأمريكي بخفض معدلات الفائدة بنسبة نقطة مئوية واحدة،
وبإدخال بعض الإجراءات التحفيزية.
وفي تغريدة نشرها الرئيس ترامب على موقع تويتر، أكد مرة أخرى على قوة الدولار التي وصفها بأنها "للأسف تؤلم بعض الأطراف في العالم". وقد جاءت هذه التغريدة من الرئيس الأمريكي بعد ساعات من تصريحات قال فيها إن الاقتصاد الأمريكي لا يواجه خطر السقوط في منطة الركود، وإنه يؤدي "بصورة عظيمة جدا".
وتعاني أسواق الأسهم الأمريكية من حالة عدم استقرار جراء الحرب التجارية بين الولايات المتحدة والصين، والبيانات الاقتصادية غير المطمئنة الواردة من ألمانيا، وكذلك المخاوف حول خروج المملكة المتحدة من الاتحاد الأوروبي.
ويقول الرئيس الأمريكي إنه لا يرى "أي ركود"، وهو مصطلح يصف ما يحدث عندما ينكمش الاقتصاد لمدة ستة أشهر متواصلة.
وقال المستشار الاقتصادي للبيت الأبيض لاري كادلو إنه لا يرى "أي ركود في الأفق".
وخلال الأسبوع الماضي، أدت المؤشرات المنخفضة لأسواق المال الأمريكية إلى مخاوف من احتمال حدوث حالة ركود في الاقتصاد الأمريكي.
لذا، فإنه أصبح من الأكثر توفيرا بالنسبة للحكومة الأمريكية الاقتراض على عشر سنوات بدلا من اثنتين.
وبحسب خبراء الاقتصاد، فإن ما يعرف بـ "منحنى العائد المقلوب"، غالبا ما يحدث قبيل فترات الركود، أو على الأقل يؤشر إلى وجود تباطؤ كبير في النمو الاقتصادي.
وأضاف "لا أعتقد أننا نعاني من ركود. إن أداء اقتصادنا قوى إلى حد كبير، كما أن مستهلكينا أغنياء. لقد أصدرت قرارا بتخفيض ضريبي كبير، وهو ما جعل جمهور المستهلكين في حالة مالية جيدة".
بهذا التصريح، يشير الرئيس ترامب إلى العوائد الكبيرة التي جناها متجر وولمارت لتجارة التجزئة والذي يعد الأضخم عالميا خلال الأسبوع الماضي، وهو ما يشير إلى الأداء القوي لمؤشر المستهلكين في الولايات المتحدة.
ويضيف ترامب: "معظم الاقتصاديين يقولون إننا لا نتجه إلى ركود. لكن باقي اقتصادات العالم لا تؤدي بشكل جيد كما يؤدي اقتصادنا".
وجاءت تصريحات ترامب في أعقاب تصريحات مستشاره الاقتصادي لاري كادلو على قناة فوكس نيوز يوم الأحد الماضي بأن الاقتصاد الأمريكي لا يزال يحافظ "على هيئته القوية الجيدة"
ويضيف كادلو: "لا يوجد ركود في الأفق. فالمستهلكون في المتاجر ورواتبهم في تزايد، ويقومون بالإنفاق كما يقومون بالادخار".
وخلال الأربعاء الماضي، هبطت أسواق الأسهم الأمريكية بنسبة ثلاثة في المئة، على الرغم من استعادة هذه الأسهم ما خسرته مع نهاية أسبوع التداول.
وخلال الشهر الماضي، خفض بنك الاحتياطي الفيدرالي الأمريكي من معدلات الفائدة للمرة الأولى منذ عام 2008، مع توقعات بقرارات تخفيض إضافية.
وقالت المحللة الاقتصادية لورا فول التي تعمل في مؤسسة جانوس هندرسون لإدارة الأصول في تصريحات لبي بي سي، إن البنك المركزي الأمريكي كان يرد بهذا القرار على "أحداث عالمية" مثل حالة الانكماش الاقتصادي التي أصابت المملكة المتحدة وألمانيا خلال الربع الثاني من العام الحالي.
وشهد الاقتصاد الألماني انكماشا بنسبة 0.1% في الربع الثاني من العام الحالي، وفقا للأرقام المكشوف عنها الأسبوع الماضي. كما قال البنك المركزي الألماني يوم الاثنين إن الاقتصاد الألماني قد يعاني مجددا من انكماش في الربع الثالث من العام الحالي وهو ما يشير إلى وضع الركود.
وقال البنك المركزي الألماني في تقريره الشهري "الأداء الاقتصادي قد يعاني في مجمله من هبوط ضئيل مجددا".
وعانى الاقتصاد الأمريكي من تباطؤ خلال الربع الأخير، إذ شهد هبوطا في وتيرة النمو السنوي بلغ 2.1 في المئة.
ونشر الرئيس الأمريكي قرابة 40 تغريدة على موقع تويتر ينتقد في بعضها رئيس البنك المركزي الأمريكي جيروم باول ويدفع في بعضها الآخر باتجاه تخفيض معدلات الفائدة.
وتقول السيدة فول: "بالطبع يصعب معرفة مدى التأثير الذي يتمتع به ترامب".
وتضيف: "لا أعتقد أنه بمقدورنا استبعاد الضغط الكبير الذي يتعرض له بنك الاحتياطي الفيدرالي من قبل ترامب، لكنه يصعب قياس مدى تأثيره المباشر على صياغة السياسات".
Friday, July 5, 2019
ओमान पाकिस्तानी बलूचों को नौकरी क्यों नहीं दे रहा
"मैंने अपनी ज़िन्दगी के पाँच साल इस इंतज़ार में गुज़ारे हैं कि कहीं से मेरी नौकरी को लेकर कोई जवाब आएगा.
लेकिन अब तक किसी ने कुछ भी नहीं बताया है और ऐसा महसूस कराया जा रहा है जैसे मैं कुछ ग़लत करने जा रहा हूं."
25 साल के गहराम बलोच का ये बयान ओमानी फ़ौज में भर्ती होने के लिए इंटरव्यू को लेकर है. वो 330 से
ज़्यादा के क़रीब बलूच नौजवानों में से एक हैं जो नौकरी के लिए इंटरव्यू के पाँच साल बाद भी जवाब के इंतज़ार में हैं.एक पाकिस्तानी शहरी का एक दूसरे देश की फ़ौज में भर्ती का ख़्वाहिशमंद होना शायद आपको अजीब लगे लेकिन पाकिस्तान के सूबे बलूचिस्तान के तटीय क्षेत्र ग्वादर के लोगों के लिए खाड़ी देश ओमान में नौकरी की ख़्वाहिश कोई अजीब चीज़ नहीं है.
बलूचिस्तान से ओमान जाने वालों में बड़ी संख्या छात्रों और मेहनतकशों की रही है. हालांकि पिछले कुछ सालों में ये प्रक्रिया अपने अंत तक पहुंचती नज़र आ रही है.
ओमानी अधिकारियों की तरफ़ से बलूच नौजवानों की अपनी फ़ौज में आख़िरी बाक़ायदा भर्ती तो 1999 में की गई थी जबकि उसके बाद 2014 में जिन लोगों के इंटरव्यू लिए गए उन्हें आज तक जवाब नहीं दिया गया.
इस बारे में वर्ल्ड बैंक की अप्रैल 2019 में प्रकाशित होने वाली रिपोर्ट के मुताबिक़, खाड़ी देशों में दक्षिणी एशिया से मज़दूरों के जाने की प्रक्रिया बहुत हद तक कम हो गई है.
इन देशों में ओमान का नाम भी लिया गया है जहां रिपोर्ट के मुताबिक़ मेहनतकशों की भर्तियों की प्रक्रिया में कमी की एक वजह वहां पर होने वाली 'ओमानाइज़ेशन' है, जिसका मतलब किसी भी तरह की भर्तियां करते वक़्त अपने शहरियों को तरजीह देना हैबलूचिस्तान और ओमान सल्तनत के संबंध ख़ासे पुराने हैं. एक अनुमान के मुताबिक़, मकरानी बलूच ओमान की आबादी का 25 फ़ीसद हिस्सा हैं और इन्हें वहां अलबलूशी पुकारा जाता है.
1908 में प्रकाशित होने वाली किताब 'गजेटियर ऑफ़ परशियन गल्फ़, ओमान एंड सेन्ट्रल अरबिया' अरब और फ़ारस की खाड़ी में काम करने वाले ब्रिटिश दूतावास के कर्मचारियों के लिए इलाक़े के बारे में जानकारी के लिए ख़ासा महत्वपूर्ण समझा जाता था.
इसके लेखक जॉन लारिमर के मुताबिक़ 18वीं सदी में ख़ान ऑफ़ क़लात नूरी नसीर ख़ान के दौर में ओमान के एक शहज़ादे 'बाहोट' बनकर यानी पनाह की तलाश में इनके पास आए थे.
शहज़ादे ने अपनी सल्तनत वापस हासिल करने के लिए बलूचिस्तान से मदद की गुज़ारिश की थी लेकिन नूरी नसीर ख़ान इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे.
बीबीसी से बात करते हुए शोधकर्ता और प्रोफ़ेसर हफ़ीज़ जमाली का कहना था, "ख़ान ऑफ़ क़लात ने उस वक़्त ग्वादर के बंदरगाह जो तब महत्वहीन था उनको तोहफ़े के तौर पर दे दिया ताकि इससे होने वाली आमदनी से वो अपना गुज़ारा कर सकें. फिर ग्वादर बाक़ायदा तौर पर ओमानी सल्तनत का हिस्सा बन गया."
हालांकि बलोच राष्ट्रवादी इस बयान को नहीं मानते और उनका मानना है कि ओमानी शहज़ादे को ग्वादर अस्थायी तौर पर उनकी हिफ़ाज़त के लिए दिया गया था और उन लोगों को ग्वादर पर पूरा हक़ हासिल नहीं था.
बलूचिस्तान के तटीय इलाक़े ग्वादर को देखा जाए तो वहां आज भी ओमानी दौर के क़िले सदियों पुराने शाही बाज़ार में नज़र आते हैं. ये ग्वादर के एक दौर की तस्वीर पेश करते हैं जब सरहदें सिर्फ़ एक लकीर समझी जाती थीं और सफ़र दुश्वार होने के बावजूद लोग काम की वजह से विभिन्न देशों में आते-जाते रहते थे.
गहराम बलोच के ख़ानदान से संबंध रखने वाले कई लोग भी ऐसे ही ज़माने में वहां चले गए थे जब ओमानी फ़ौज में काम करने के कारण ओमान की नागरिकता मिलना ख़ासा आसान था.
प्रोफ़ेसर हफ़ीज़ जमाली ने जॉन लारिमर की लिखी हुई बात दोहराते हुए कहा कि 'जब ओमानी सल्तनत का फैलाव हुआ यानी जब ओमान ने अफ़्रीका और भारत के समुद्र तक अपना क़ब्ज़ा जमाया तो मकरान के बलोच बतौर सिपाही ओमान के फैलाव में एक अहम किरदार निभाते हुए उभरे.'
Tuesday, June 25, 2019
रैली में जनता से मुखातिब जेपी
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के एक धड़े के प्रमुख सैय्यद अली शाह गिलानी, हमेशा से पाकिस्तान को भी वार्ता प्रक्रिया में शामिल करने का समर्थन करते आए
हैं. हमेशा मुखर होकर भारत सरकार के बयानों को ख़ारिज करने वाले गिलानी भी
इस बार चुप हैं.
मीरवाइज़ जिनके एक साक्षात्कार ने सरकार को मजबूर कर दिया कि वो आगे आकर ऐसा बयान दें, वो भी ख़ामोश हैं.
क्या वाक़ई में पर्दे के पीछे कुछ चल रहा है? कोई नहीं जानता. लेकिन क़यासों का दौर जारी है, और जितना संभव है उतने अंदाज़े लगाए जा रहे हैं. तथ्य यह है कि केंद्र में मोदी सरकार के एक बार फिर चुनकर आने के बाद से कश्मीर के अलगागववादी निशाने पर हैं.
25 जून 1975 की सुबह पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के फ़ोन की घंटी बजी. उस समय वह दिल्ली में ही बंग भवन के अपने कमरे में अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे.
दूसरे छोर पर इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आरके धवन थे जो उन्हे प्रधानमंत्री निवास पर तलब कर रहे थे. जब राय 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे तो इंदिरा गांधी अपनी स्टडी में बड़ी मेज़ के सामने बैठी हुई थीं जिस पर ख़ुफ़िया रिपोर्टों का ढ़ेर लगा हुआ था.
अगले दो घंटों तक वो देश की स्थिति पर बात करते रहे. इंदिरा का कहना था कि पूरे देश में अव्यवस्था फैल रही है. गुजरात और बिहार की विधानसभाएं भंग की जा चुकी हैं. इस तरह तो विपक्ष की मांगों का कोई अंत ही नहीं होगा. हमें कड़े फ़ैसले लेने की ज़रूरत है.
इंदिरा ने ये भी कहा कि वो अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की हेट लिस्ट में सबसे ऊपर हैं और उन्हें डर है कि कहीं उनकी सरकार का भी सीआईए की मदद से चिली के राष्ट्रपति सालवडोर अयेंदे की तरह तख़्ता न पलट दिया जाए.
बाद में एक इंटरव्यू में भी इंदिरा ने स्वीकार किया किया कि भारत को एक 'शॉक ट्रीटमेंट' की ज़रूरत थी. इंदिरा ने सिद्धार्थ को इसलिए बुलाया था क्योंकि वह संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ माने जाते थे.
मज़े की बात ये थी कि उन्होंने तब तक अपने कानून मंत्री एचआर गोखले से इस बारे में कोई सलाह मशविरा नहीं किया था. राय ने कहा कि मुझे वापस जाकर संवैधानिक स्थिति को समझने दीजिए. इंदिरा राज़ी हो गईं लेकिन यह भी कहा कि आप 'जल्द से जल्द' वापस आइए.
राय ने वापस आकर न सिर्फ़ भारतीय बल्कि अमरीकी संविधान के संबद्ध हिस्सों पर नज़र डाली. वो दोपहर बाद तीन बज कर तीस मिनट पर दोबारा 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे और इंदिरा को बताया कि वो आंतरिक गड़बड़ियों से निपटने के लिए धारा 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर सकतीं हैं.
इंदिरा ने राय से कहा कि वो आपातकाल लगाने से पहले मंत्रिमंडल के सामने इस मामले को नहीं लाना चाहतीं. इस पर राय ने उन्हें सलाह दी कि वो राष्ट्रपति से कह सकतीं हैं कि मंत्रिमंडल की बैठक बुलाने के लिए पर्याप्त समय नहीं था.
इंदिरा ने सिद्धार्थ शंकर राय से कहा कि वो इस प्रस्ताव के साथ राष्ट्रपति के पास जाएं. कैथरीन फ़्रैंक अपनी किताब इंदिरा में लिखती हैं कि इसका राय ने ये कह कर विरोध किया कि वो पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री हैं, प्रधानमंत्री नहीं.
हाँ उन्होंने ये पेशकश ज़रूर कर दी कि वो उनके साथ राष्ट्रपति भवन चल सकते हैं. ये दोनों शाम साढ़े पांच बजे वहाँ पहुंचे. सारी बात फ़ख़रुद्दीन अली अहमद को समझाई गई. उन्होंने इंदिरा से कहा कि आप इमरजेंसी के कागज़ भिजवाइए.
जब राय और इंदिरा वापस 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे तब तक अंधेरा घिर आया था. राय ने इंदिरा के सचिव पीएन धर को ब्रीफ़ किया. धर ने अपने टाइपिस्ट को बुला कर आपातकाल की घोषणा के प्रस्ताव को डिक्टेट कराया. सारे कागज़ों के साथ आर के धवन राष्ट्रपति भवन पहुँचे.
राय वापस मुड़े और धवन के पास जा कर बोले कि वो इंदिरा से फिर मिलना चाहते हैं. धवन ने कहा कि वो सोने जा चुकीं हैं. राय ने ज़ोर दिया,'मेरा उनसे मिलना ज़रूरी है.'
बहुत झिझकते हुए धवन इंदिरा गांधी के पास गए और उन्हें ले कर बाहर आए. राय ने कैथरीन फ़्रैंक को बताया कि जब उन्होंने इंदिरा को बिजली काटने वाली बात बताई तो उनके होश उड़ गए.
उन्होंने राय से इंतज़ार करने के लिए कहा और कमरे से बाहर चली गईं. इस बीच धवन के दफ़्तर से संजय ने बंसी लाल को फ़ोन किया कि राय बिजली काटने की योजना का विरोध कर रहे हैं.
बंसी लाल ने जवाब दिया, "राय को निकाल बाहर करिए... वो खेल बिगाड़ रहे हैं. वो अपने आपको बहुत बड़ा वकील समझते हैं लेकिन उन्हें कुछ आता जाता नहीं."(जग्गा कपूर, वाट प्राइस पर्जरी: फ़ैक्ट्स ऑफ़ शाह कमीशन)
जब राय इंदिरा का इंतज़ार कर रहे थे तो ओम मेहता ने उन्हें बताया कि इंदिरा सेंसरशिप तो चाहती हैं लेकिन अख़बारों की बिजली काटने और अदालतें बंद करने का आइडिया संजय का है.
जब इंदिरा वापस लौटीं तो उनकी आंखें लाल थीं. उन्होंने राय से कहा, "सिद्धार्थ बिजली रहेगी और अदालतें भी खुलेंगीं." राय इस ख़ुशफ़हमी में वापस लौटे कि सब कुछ ठीक हो गया है.
मीरवाइज़ जिनके एक साक्षात्कार ने सरकार को मजबूर कर दिया कि वो आगे आकर ऐसा बयान दें, वो भी ख़ामोश हैं.
क्या वाक़ई में पर्दे के पीछे कुछ चल रहा है? कोई नहीं जानता. लेकिन क़यासों का दौर जारी है, और जितना संभव है उतने अंदाज़े लगाए जा रहे हैं. तथ्य यह है कि केंद्र में मोदी सरकार के एक बार फिर चुनकर आने के बाद से कश्मीर के अलगागववादी निशाने पर हैं.
25 जून 1975 की सुबह पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के फ़ोन की घंटी बजी. उस समय वह दिल्ली में ही बंग भवन के अपने कमरे में अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे.
दूसरे छोर पर इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आरके धवन थे जो उन्हे प्रधानमंत्री निवास पर तलब कर रहे थे. जब राय 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे तो इंदिरा गांधी अपनी स्टडी में बड़ी मेज़ के सामने बैठी हुई थीं जिस पर ख़ुफ़िया रिपोर्टों का ढ़ेर लगा हुआ था.
अगले दो घंटों तक वो देश की स्थिति पर बात करते रहे. इंदिरा का कहना था कि पूरे देश में अव्यवस्था फैल रही है. गुजरात और बिहार की विधानसभाएं भंग की जा चुकी हैं. इस तरह तो विपक्ष की मांगों का कोई अंत ही नहीं होगा. हमें कड़े फ़ैसले लेने की ज़रूरत है.
इंदिरा ने ये भी कहा कि वो अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की हेट लिस्ट में सबसे ऊपर हैं और उन्हें डर है कि कहीं उनकी सरकार का भी सीआईए की मदद से चिली के राष्ट्रपति सालवडोर अयेंदे की तरह तख़्ता न पलट दिया जाए.
बाद में एक इंटरव्यू में भी इंदिरा ने स्वीकार किया किया कि भारत को एक 'शॉक ट्रीटमेंट' की ज़रूरत थी. इंदिरा ने सिद्धार्थ को इसलिए बुलाया था क्योंकि वह संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ माने जाते थे.
मज़े की बात ये थी कि उन्होंने तब तक अपने कानून मंत्री एचआर गोखले से इस बारे में कोई सलाह मशविरा नहीं किया था. राय ने कहा कि मुझे वापस जाकर संवैधानिक स्थिति को समझने दीजिए. इंदिरा राज़ी हो गईं लेकिन यह भी कहा कि आप 'जल्द से जल्द' वापस आइए.
राय ने वापस आकर न सिर्फ़ भारतीय बल्कि अमरीकी संविधान के संबद्ध हिस्सों पर नज़र डाली. वो दोपहर बाद तीन बज कर तीस मिनट पर दोबारा 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे और इंदिरा को बताया कि वो आंतरिक गड़बड़ियों से निपटने के लिए धारा 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर सकतीं हैं.
इंदिरा ने राय से कहा कि वो आपातकाल लगाने से पहले मंत्रिमंडल के सामने इस मामले को नहीं लाना चाहतीं. इस पर राय ने उन्हें सलाह दी कि वो राष्ट्रपति से कह सकतीं हैं कि मंत्रिमंडल की बैठक बुलाने के लिए पर्याप्त समय नहीं था.
इंदिरा ने सिद्धार्थ शंकर राय से कहा कि वो इस प्रस्ताव के साथ राष्ट्रपति के पास जाएं. कैथरीन फ़्रैंक अपनी किताब इंदिरा में लिखती हैं कि इसका राय ने ये कह कर विरोध किया कि वो पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री हैं, प्रधानमंत्री नहीं.
हाँ उन्होंने ये पेशकश ज़रूर कर दी कि वो उनके साथ राष्ट्रपति भवन चल सकते हैं. ये दोनों शाम साढ़े पांच बजे वहाँ पहुंचे. सारी बात फ़ख़रुद्दीन अली अहमद को समझाई गई. उन्होंने इंदिरा से कहा कि आप इमरजेंसी के कागज़ भिजवाइए.
जब राय और इंदिरा वापस 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे तब तक अंधेरा घिर आया था. राय ने इंदिरा के सचिव पीएन धर को ब्रीफ़ किया. धर ने अपने टाइपिस्ट को बुला कर आपातकाल की घोषणा के प्रस्ताव को डिक्टेट कराया. सारे कागज़ों के साथ आर के धवन राष्ट्रपति भवन पहुँचे.
राय वापस मुड़े और धवन के पास जा कर बोले कि वो इंदिरा से फिर मिलना चाहते हैं. धवन ने कहा कि वो सोने जा चुकीं हैं. राय ने ज़ोर दिया,'मेरा उनसे मिलना ज़रूरी है.'
बहुत झिझकते हुए धवन इंदिरा गांधी के पास गए और उन्हें ले कर बाहर आए. राय ने कैथरीन फ़्रैंक को बताया कि जब उन्होंने इंदिरा को बिजली काटने वाली बात बताई तो उनके होश उड़ गए.
उन्होंने राय से इंतज़ार करने के लिए कहा और कमरे से बाहर चली गईं. इस बीच धवन के दफ़्तर से संजय ने बंसी लाल को फ़ोन किया कि राय बिजली काटने की योजना का विरोध कर रहे हैं.
बंसी लाल ने जवाब दिया, "राय को निकाल बाहर करिए... वो खेल बिगाड़ रहे हैं. वो अपने आपको बहुत बड़ा वकील समझते हैं लेकिन उन्हें कुछ आता जाता नहीं."(जग्गा कपूर, वाट प्राइस पर्जरी: फ़ैक्ट्स ऑफ़ शाह कमीशन)
जब राय इंदिरा का इंतज़ार कर रहे थे तो ओम मेहता ने उन्हें बताया कि इंदिरा सेंसरशिप तो चाहती हैं लेकिन अख़बारों की बिजली काटने और अदालतें बंद करने का आइडिया संजय का है.
जब इंदिरा वापस लौटीं तो उनकी आंखें लाल थीं. उन्होंने राय से कहा, "सिद्धार्थ बिजली रहेगी और अदालतें भी खुलेंगीं." राय इस ख़ुशफ़हमी में वापस लौटे कि सब कुछ ठीक हो गया है.
Monday, June 10, 2019
مظاهرات السودان: المجلس العسكري يدعو إلى استئناف الحوار مع المعارضة
دعا رئيس المجلس العسكري الانتقالي في السودان إلى استئناف الحوار بشأن المرحلة الانتقالية، بعد يوم واحد من
إلغاء كل الاتفاقات مع تحالف المعارضة الرئيسي.
وتزامنت تصريحات
الفريق أول عبد الفتاح البرهان مع ارتفاع عدد القتلى، بعد اقتحام قوات الأمن موقع اعتصام في الخرطوم الاثنين، إلى 60 قتيلا، بحسب ما ذكرته لجنة
أطباء السودان المركزية المرتبطة بالمعارضة.وقالت اللجنة في وقت مبكر الأربعاء إن عدد الأشخاص الذين قتلوا منذ اقتحمت قوات الأمن مخيما للاحتجاج خارج مقر وزارة الدفاع في وسط الخرطوم الاثنين ارتفع إلى 60.
وكانت آخر إحصائية للقتلى تشير إلى أن العدد 35 شخصا.
وأشارت اللجنة في بيان نشر بموقع فيسبوك إلى أن "40 جثة لشهدائنا الكرام انتُشلت من النيل بالأمس ... ونقلت إلى جهة غير معلومة من قبل مليشيات الجنجويد".
وقال البرهان في رسالة بمناسبة عيد الفطر، أذاعها التلفزيون الرسمي: "نترحم على أرواح الشهداء ونتمنى للجرحى عاجل الشفاء"، في إشارة إلى من قتلوا أو أصيبوا في الاحتجاجات التي بدأت في ديسمبر/ كانون الأول وأسفرت عن إطاحة الجيش بالرئيس عمر البشير واعتقاله في أبريل/ نيسان.
وقال البرهان إنه لا يزال مستعدا لتسليم السلطة لحكومة منتخبة، مضيفا "نحن في المجلس العسكري نفتح أيادينا لتفاوض لا قيد فيه إلا مصلحة الوطن".
وطالب نائب رئيس المجلس العسكري، الفريق محمد حمدان دقلو، المحتجين بإزالة المتاريس من الطرقات العامة.
وقال في خطاب أمام قواته في الخرطوم إن هذه المتاريس تسببت في أضرار بالغة للمواطنين.
وأشار إلى أن السلطات اعتقلت عددا كبيرا ممن ينصبون المتاريس.
وقال إن قوات الدعم السريع التي يقودها تواجه استهدافا من جهات لم يسمها، مضيفا أن جهات تزعم أنها من قواته قامت بترويع المواطنين.
وجاء قرار المجلس بإلغاء الاتفاقات مع المعارضة بعد أن اقتحمت قوات الأمن موقع الاعتصام أمام مقر وزارة الدفاع بوسط الخرطوم.
وكان المجلس قد أعرب في بيان بموقع تويتر عن "أسفه" لتطوّر الأوضاع عقب فضّ الاعتصام.
وقال "قامت قوّة مشتركة من القوّات المسلّحة والدّعم السريع وجهاز الأمن والمخابرات وقوّات الشرطة بإشراف وكلاء النيابة، بتنفيذ عمليّة مشتركة لنظافة بعض المواقع المتاخمة لشارع النيل والقبض على المتفلّتين ومعتادي الإجرام".
ووصلت المحادثات بين المجلس العسكري والمعارضة إلى طريق مسدود في ظل خلافات عميقة بشأن من ينبغي أن يقود المرحلة الانتقالية نحو الديمقراطية، التي اتفق على أن تكون مدتها ثلاث سنوات.
ما هو رد المعارضة؟
رفض تجمّع المهنيّين السودانيّين، وهو أبرز مكوّنات تحالف الحرّية والتغيير الذي يقود الحركة الاحتجاجيّة، الإعلان الذي أصدره المجلس العسكري.
ودعت الحركة الاحتجاجيّة أنصارها إلى المشاركة في "عصيان مدني" في أرجاء البلاد للإطاحة بالمجلس العسكري الحاكم.
ووصف تحالف "قوى إعلان الحرّية والتّغيير" ما تعرّض له "الثوّار المعتصمون" الاثنين بأنّه "مجزرة دمويّة".
واتّهم أعضاء في لجنة أطباء السودان المركزية، خلال مؤتمر صحفي في لندن، القوّات الأمنيّة بمهاجمة مستشفيات في كلّ أنحاء البلاد طيلة الفترة الماضية. وتحدّثوا عن عمليّات اغتصاب في الخرطوم، دون تحديد مصدر المعلومات.
وقال حسام المجمر عضو اللجنة "إنهم يُهاجمون المستشفيات منذ فترة طويلة، بعد وصولهم إلى السلطة، وذلك في أجزاء مختلفة من السودان، بما في ذلك دارفور وجبال النوبة وولاية النيل الأزرق".
ودعا تجمّع المهنيّين "أبناء الشعب السوداني" إلى إقامة صلاة عيد الفطر وصلاة الغائب على الشهداء الثلاثاء 4 يونيو/ حزيران، رغم إعلان السلطات المعنيّة أنّ العيد الأربعاء.
وفي مدينة بورتسودان على البحر الأحمر، تظاهر
واشتكى كثير من سكّان العاصمة من أنّهم لم يتمكّنوا من الاتّصال بالإنترنت بعدما بدأت تظهر مشاكل في الشبكة منذ الاثنين.
وشهدت حركة الملاحة الجوّية إلى الخرطوم اضطرابات، في وقت راقبت شركات الطيران التطوّرات على الأرض.
- في الغارديان: "المذبحة في السودان تظهر الوجه الحقيقي لنظام البشير"
وألغت شركة مصر للطيران رحلات كانت مقرّرة إلى الخرطوم ليل الاثنين وصباح الثلاثاء. وأعلنت الخطوط التركيّة كذلك إلغاء رحلاتها إلى الخرطوم لأسباب أمنيّة.
ردود فعل
وكان الأمين العام للأمم المتّحدة، أنطونيو غوتيريش، أدان "الاستخدام المفرط" للقوّة بالسودان، داعيًا إلى تحقيق مستقلّ.
ودعمت حكومات إفريقيّة وغربيّة المتظاهرين، إلا أنّ حكومات عربيّة، على رأسها السعودية، دعمت المجلس العسكري بقيادة البرهان.
كما حضّ رئيس مفوّضية الاتّحاد الإفريقي، موسى فكي، على إجراء "تحقيق فوري وشفّاف لمحاسبة كلّ المسؤولين".
لكنّ الحكومات العربيّة دعت إلى استئناف المحادثات بين المتظاهرين والجيش. وكان البرهان قد زار مصر والإمارات والسعوديّة قبيل الحملة الأمنيّة.
محتجّون عقب صلاة العيد، بحسب ما ذكرته وكالة فرانس برس، مردّدين "يسقط المجلس العسكري" ومطالبين بـ"سلطةٍ مدنيّة"، وفق شاهد عيان.
كيف يبدو الوضع في السودان؟
نقلت وكالة فرانس برس عن أحد سكّان منطقة شمبات قوله "تجمّعنا في ساحتنا، كما اعتَدنا سنويًا، وأدّينا صلاة العيد، ولكنّ قوّات من الدعم السريع والشرطة أطلقت علينا الغاز المسيل للدموع والقنابل الصوتية، وعقب الصلاة أغلق الشباب الشارع الرئيسي بوضع المتاريس".
وبدت الشوارع المحيطة بوسط العاصمة شبه مهجورة الثلاثاء، إذ أغلق العديد من الأسواق والمتاجر أبوابها في غياب تام تقريبًا لأي سيارات في الشوارع.
Wednesday, April 24, 2019
كنت أخاف من أن أطرح رأيا في أي شيء
ففي عام 2018 وحده، وفقا لأرقام حكومية، سجل عدد جرائم بدافع الكراهية الدينية زيادة بواقع 40 في المئة في شتى أرجاء بريطانيا، يستهدف أكثر من نصفها المسلمين.
سأكون كاذبة إن قلت إن سماع مثل هذه الإحصاءات لم يجعلني خائفة. لكني أرفض الانعزال، فبالنسبة لي كون المرء مسلما لا يعني هوية ثقافية فحسب، بل هو عدم الخوف في مواجهة الكراهية. لذا كنت أسوق لوالدي بعض الأكاذيب البيضاء، وعشت حياتي بطريقة معتادة: أحضر فصولا دراسية وأشارك في أنشطة السياسة الطلابية وأذهب لتناول القهوة مع الأصدقاء.
وخلال الأيام التالية للهجوم، نظمت أمسية لنحو 60 شخصا في نوتينغهام، وأردت أن أتيح للمسلمين مساحة نستطيع من خلالها التواصل فيما بيننا ونشاطر بعضنا ما نشعر به جميعا كناجين وحزانى على أولئك القتلى، والتعامل مع الخوف المكبوت بداخلنا من أن تكون المساجد هي الهدف التالي. وقد تكون أسرتنا، ونحن عاجزون عن وقفها.
لا يعد التعامل مع الخوف جديدا بالنسبة لي. أنا نشأت في شرقي لندن، في منطقة يسودها سكان ينتمون إلى الطبقة العاملة من الآسيويين والمسلمين. وعلى الرغم من وجود الكثير من المساجد والأغذية "الحلال" في متاجر السوبر ماركت المحلية، إلا أنني قضيت سنوات طفولتي ومراهقتي أعيش في كنف عنف مناهض للمسلمين.
بدأت مرحلة تعليمي الابتدائية عندما حدثت هجمات الحادي عشر من سبتمبر/أيلول الإرهابية. كنت أبلغ من العمر خمس سنوات، وأتذكر أنهم كانوا يطلقون عليّ أسماء في ساحة اللعب في المدرسة، وفجأة فقدت الشعور بالأمان.
بعد أربع سنوات حدث هجوم السابع من يوليو/تموز عام 2005 في لندن، مدينتي. أتذكر الشعور بصدمة والخوف من أن يحدث أي شيء كهذا بالقرب من منزلي. وبعد ذلك تغير كل شيء.
بدأ التنمر في المدرسة وتسميتي "بن لادن" أو "إرهابية"، ولم تقتصر الهجمات على الإساءة اللفظية فقط، بل أحيانا كنت أذهب إلى منطقتي وأسرتي بإصابات جسدية واضحة. وفي مناسبات قليلة، كانت الاعتداءات سيئة حقا، وينتهي الأمر بي في المستشفى.
ظل أثر تلك الأحداث بداخلي حتى يومنا هذا، وإن تعرضت إلى سوء معاملة، يكون رد فعلي الأول هو "ماذا فعلت لاستحق هذا؟ ماذا فعلت؟ لابد أن هناك خطأ"
التحقت بعد ذلك بمرحلة التعليم الثانوية، وعانيت من اضطرابات في الأكل، ومازلت أعاني من اكتئاب ومشكلات نفسية أخرى حتى اليوم.
وصل التنمر في المدرسة إلى حد كونه أصبح كالكابوس. كنت أعاني من عجزي عن تكوين أصدقاء والحفاظ على الهدوء في الفصل. كنت أخاف من أن أطرح رأيا في أي شيء.
كان كل ما كنت أرغب فيه في ذلك الوقت هو اعتباري "بريطانية" وأن أعامل مثل جميع الأطفال غير المسلمين في الفصل. قيل لي مرارا أنت "لست بريطانية"، بل "إرهابية" وأسوأ من ذلك. وكانوا يلومونني على أعمال يرتكبها متطرفون قتلة بزعم أنهم يشاركونني الدين.
كان الالتحاق بالجامعة في نوتنغهام صدمة ثقافية هائلة بالنسبة لي، على الرغم من نشأتي في حي يغلب عليه الآسيويون في شرقي لندن. كنت المسلمة الوحيدة والآسيوية الوحيدة في المحاضرة. كانت رؤية مسلمة ترتدي الحجاب مشهدا مألوفا في منطقتنا. لكني قابلت أناسا في الجامعة من مناطق ريفية لم يسبق لهم رؤية سيدات يرتدين الحجاب إلا على شاشات التلفزيون أو في الصحف.
لا أستطيع حصر كم عدد المرات التي اضطررت فيها إلى توضيح الأمر، نعم أنا ارتدي الحجاب بمحض اختياري. ولم أُجبر على ارتداء الحجاب. كنت محظوظة بعدم الاعتداء عليّ في حرم الجامعة وأنا أرتديه. أعرف فتيات خلعن حجابهن.
عندما بدأت مرحلة تعليمي الجامعية، أردت أن أبدأ صفحة جديدة في حياتي بعيدة عن التنمر والسخرية، والشعور بعدم الخوف من كوني مختلفة. وخلال سنوات ارتديت حجابي بطريقة أشبه كثيرا بالعمامة، وأشبه بطريقة تواكب موضة العصر.
كنت قلقة في البداية من كوني لا أستطيع التغلب على ذلك بعيدا عن منطقتي، وعدم الشعور بالأمان أو ظهور قضية الانتماء من جديد على السطح. وحمدا لله، استطعت تكوين شبكة قوية من الأصدقاء حاليا. وقضيت ستة أشهر أيضا أدرس في الخارج في ماليزيا، وهي تجربة ربما كنت أخشاها وأنا أصغر سنا.
أشعر اليوم بمزيد من الثقة بنفسي، وأصبح لي رأي في أنشطة السياسة الطلابية. ومازالت أعاني من مشكلات نفسية ولم يفارقني تأثير الصدمة التي عانيت منها وأنا في مثل هذا السن الصغير.
عدت مؤخرا إلى ارتداء حجابي بالطريقة التقليدية، كتلك الطريقة التي اعتدتها وأنا في سن المدرسة.
الأمر بالنسبة لي هو استعادة لرمز هويتي كمسلمة، وأنا أرتديه في هذه الأيام بفخر، حتى في وجه الكراهية.
سأكون كاذبة إن قلت إن سماع مثل هذه الإحصاءات لم يجعلني خائفة. لكني أرفض الانعزال، فبالنسبة لي كون المرء مسلما لا يعني هوية ثقافية فحسب، بل هو عدم الخوف في مواجهة الكراهية. لذا كنت أسوق لوالدي بعض الأكاذيب البيضاء، وعشت حياتي بطريقة معتادة: أحضر فصولا دراسية وأشارك في أنشطة السياسة الطلابية وأذهب لتناول القهوة مع الأصدقاء.
وخلال الأيام التالية للهجوم، نظمت أمسية لنحو 60 شخصا في نوتينغهام، وأردت أن أتيح للمسلمين مساحة نستطيع من خلالها التواصل فيما بيننا ونشاطر بعضنا ما نشعر به جميعا كناجين وحزانى على أولئك القتلى، والتعامل مع الخوف المكبوت بداخلنا من أن تكون المساجد هي الهدف التالي. وقد تكون أسرتنا، ونحن عاجزون عن وقفها.
لا يعد التعامل مع الخوف جديدا بالنسبة لي. أنا نشأت في شرقي لندن، في منطقة يسودها سكان ينتمون إلى الطبقة العاملة من الآسيويين والمسلمين. وعلى الرغم من وجود الكثير من المساجد والأغذية "الحلال" في متاجر السوبر ماركت المحلية، إلا أنني قضيت سنوات طفولتي ومراهقتي أعيش في كنف عنف مناهض للمسلمين.
بدأت مرحلة تعليمي الابتدائية عندما حدثت هجمات الحادي عشر من سبتمبر/أيلول الإرهابية. كنت أبلغ من العمر خمس سنوات، وأتذكر أنهم كانوا يطلقون عليّ أسماء في ساحة اللعب في المدرسة، وفجأة فقدت الشعور بالأمان.
بعد أربع سنوات حدث هجوم السابع من يوليو/تموز عام 2005 في لندن، مدينتي. أتذكر الشعور بصدمة والخوف من أن يحدث أي شيء كهذا بالقرب من منزلي. وبعد ذلك تغير كل شيء.
بدأ التنمر في المدرسة وتسميتي "بن لادن" أو "إرهابية"، ولم تقتصر الهجمات على الإساءة اللفظية فقط، بل أحيانا كنت أذهب إلى منطقتي وأسرتي بإصابات جسدية واضحة. وفي مناسبات قليلة، كانت الاعتداءات سيئة حقا، وينتهي الأمر بي في المستشفى.
ظل أثر تلك الأحداث بداخلي حتى يومنا هذا، وإن تعرضت إلى سوء معاملة، يكون رد فعلي الأول هو "ماذا فعلت لاستحق هذا؟ ماذا فعلت؟ لابد أن هناك خطأ"
التحقت بعد ذلك بمرحلة التعليم الثانوية، وعانيت من اضطرابات في الأكل، ومازلت أعاني من اكتئاب ومشكلات نفسية أخرى حتى اليوم.
وصل التنمر في المدرسة إلى حد كونه أصبح كالكابوس. كنت أعاني من عجزي عن تكوين أصدقاء والحفاظ على الهدوء في الفصل. كنت أخاف من أن أطرح رأيا في أي شيء.
كان كل ما كنت أرغب فيه في ذلك الوقت هو اعتباري "بريطانية" وأن أعامل مثل جميع الأطفال غير المسلمين في الفصل. قيل لي مرارا أنت "لست بريطانية"، بل "إرهابية" وأسوأ من ذلك. وكانوا يلومونني على أعمال يرتكبها متطرفون قتلة بزعم أنهم يشاركونني الدين.
كان الالتحاق بالجامعة في نوتنغهام صدمة ثقافية هائلة بالنسبة لي، على الرغم من نشأتي في حي يغلب عليه الآسيويون في شرقي لندن. كنت المسلمة الوحيدة والآسيوية الوحيدة في المحاضرة. كانت رؤية مسلمة ترتدي الحجاب مشهدا مألوفا في منطقتنا. لكني قابلت أناسا في الجامعة من مناطق ريفية لم يسبق لهم رؤية سيدات يرتدين الحجاب إلا على شاشات التلفزيون أو في الصحف.
لا أستطيع حصر كم عدد المرات التي اضطررت فيها إلى توضيح الأمر، نعم أنا ارتدي الحجاب بمحض اختياري. ولم أُجبر على ارتداء الحجاب. كنت محظوظة بعدم الاعتداء عليّ في حرم الجامعة وأنا أرتديه. أعرف فتيات خلعن حجابهن.
عندما بدأت مرحلة تعليمي الجامعية، أردت أن أبدأ صفحة جديدة في حياتي بعيدة عن التنمر والسخرية، والشعور بعدم الخوف من كوني مختلفة. وخلال سنوات ارتديت حجابي بطريقة أشبه كثيرا بالعمامة، وأشبه بطريقة تواكب موضة العصر.
كنت قلقة في البداية من كوني لا أستطيع التغلب على ذلك بعيدا عن منطقتي، وعدم الشعور بالأمان أو ظهور قضية الانتماء من جديد على السطح. وحمدا لله، استطعت تكوين شبكة قوية من الأصدقاء حاليا. وقضيت ستة أشهر أيضا أدرس في الخارج في ماليزيا، وهي تجربة ربما كنت أخشاها وأنا أصغر سنا.
أشعر اليوم بمزيد من الثقة بنفسي، وأصبح لي رأي في أنشطة السياسة الطلابية. ومازالت أعاني من مشكلات نفسية ولم يفارقني تأثير الصدمة التي عانيت منها وأنا في مثل هذا السن الصغير.
عدت مؤخرا إلى ارتداء حجابي بالطريقة التقليدية، كتلك الطريقة التي اعتدتها وأنا في سن المدرسة.
الأمر بالنسبة لي هو استعادة لرمز هويتي كمسلمة، وأنا أرتديه في هذه الأيام بفخر، حتى في وجه الكراهية.
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