Friday, November 22, 2019

एजीआर पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला

वोडाफ़ोन-आइडिया और एयरटेल के घाटा दिखाने के साथ-साथ हाल ही में लाइसेंस फ़ीस से जुड़े विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आया है.
मामला है एजीआर यानी अडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू का. यह 15 साल पुराना केस है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट का अभी फ़ैसला आया है.
जब मोबाइल सर्विस शुरू हुई थी, तो ऑपरेटरों से सरकार फ़िक्स्ड लाइसेंस फ़ीस लेती थी. यानी आपके 100 ग्राहक हों या लाखों, आपको इसके एवज में निश्चित रकम देनी है.
लेकिनअगस्त 1999 में नई पॉलिसी आई जिसके मुताबिक़ ऑपरेटरों को सरकार के साथ रेवेन्यू शेयर करना होगा. यानी आपको 100 रुपए की कमाई में से भी निश्चित प्रतिशत सरकार को देना होगा और हज़ारों-करोड़ की कमाई में से भी.
इससे सरकार की कमाई भी बढ़ गई क्योंकि टेलिकॉम कंपनियां भी बढ़ गईं और उनके ग्राहक बढ़ने से सरकार को भी फ़ायदा हुआ. लेकिन एजीआर का झगड़ा ये है कि इसमें किस-किस चीज़ को शामिल किया जाए.
अब यह टेलिकॉम कंपनियों की क़िस्मत ख़राब है कि इसी दौर में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ आया है और उन्हें भारी-भरकम लंबित रक़म सरकार को चुकानी होगी.
अब इसका समाधान यह हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को सरकार ही नया क़ानून लाकर बदलकर कंपनियों को राहत दे या फिर डिपार्टमेंट ऑफ़ टेलिकॉम कहे कि हम आपके यह रक़म एकमुश्त नहीं लेंगे, आप धीरे-धीरे एक निश्चित अवधि में दे दीजिए.
प्रश्न यह उठता है कि जब कोई कंपनी डेटा को महंगा करेगी तो क्या उसके ग्राहक अन्य कंपनियों के पास नहीं चले जाएंगे?
मोबाइल नंबर पोर्टेबिलिटी (एमएनपी) अधिक सफल नहीं हुआ है. फिर बात आती है विकल्पों की. बीएसएनएल को भी मिला दिया जाए तो भारत में चार ही टेलिकॉम ऑपरेटर हैं. यानी ग्राहकों के पास बहुत विकल्प नहीं हैं.
अगर आज की तुलना 2008-10 से करें तो तब देश में 13 टेलिकॉम ऑपरेटर थे. अब स्थिति उल्टी हो गई है. पहले प्राइसिंग पावर यानी मूल्य तय करने की ताक़त कंपनियों के पास नहीं थी.
उस समय ग्राहकों के पास विकल्प बहुत थे. इसीलिए प्रतियोगिता के कारण कंपनियां मूल्य बढ़ाने से पहले सोचती थीं. लेकिन अब कम ऑपरेटर रह जाने के कारण प्राइसिंग पावर कंपनियों के पास आ गई है.

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